इस संग्रह की कविताएँ किसी दर्पण की तरह हैं, जिसमें पाठक स्वयं को भी देख सकते हैं और उस स्त्री को भी, जो कभी माँ है, कभी प्रेमिका, कभी बेटी, कभी अकेली सख़्त चट्टान-सी, तो कभी भीतर ही भीतर बहती एक नदी। ये कविताएँ ना तो शोर करती हैं, ना उपदेश - ये बस धीरे से पाठक के कंधे पर हाथ रखती हैं और कहती हैं, "मैं भी यहीं हूँ - तुम्हारी तरह सोचती, सहती, सँभलती और फिर मुस्कुराती हूँ।" रेनू 'अंशुल' की लेखनी में शब्दों की आत्मा है। वे जीवन के आम पलों को असाधारण संवेदना के साथ रचती हैं - कहीं प्रेम की सोंधी गंध है, तो कहीं समाज की कठोर साँसें। रिश्तों की उलझनों में सुलझती आत्मा, और खामोशी में बोलती स्त्री - इस संग्रह की केंद्रीय संवेदना है।